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27 फ़रवरी 1931 को शहीद
क्रांतिकारी वीर-सपूत चंद्रशेखर आजाद
को शत - शत नमन
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के कई क्रांतिकारी वीर-सपूतों की याद आज भी हमारी रुह में जोश और देशप्रेम की एक लहर पैदा कर देती है. एक वह समय था जब लोग अपना सब कुछ छोड़कर देश को आजाद कराने के लिए बलिदान देने को तैयार रहते थे और एक आज का समय है जब अपने ही देश के नेता अपनी ही जनता को मार कर खाने पर तुले हैं. देशभक्ति की जो मिशाल हमारे देश के क्रांतिकारियों ने पैदा की थी अगर उसे आग की तरह फैलाया जाता तो संभव था आजादी हमें जल्दी मिल जाती.
वीरता और पराक्रम की कहानी हमारे देश के वीर क्रांतिकारियों ने रखी थी वह आजादी की लड़ाई की विशेष कड़ी थी जिसके बिना आजादी मिलना नामुमकिन था.
भारत का इतिहास गवाह है कि यहां कई महापुरुष हुए, जिन्होंने देश के लिये अपनी जान तक न्योछावर कर दी।उन्हीं में से एक हैं चंद्रशेखर आज़ाद, जिन्होंनेदेशप्रेम, वीरता और साहस की एक ऐसी ही मिशाल थे शहीद क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद. 25 साल की उम्र में भारत माता के लिए शहीद होने वाले इस महापुरुष के बारें में जितना कहा जाए उतना कम है. आज ही के दिन साल 1931 में चन्द्रशेखर आजाद शहीद हुए थे.भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राम प्रसाद बिसमिल और सरदार भगत सिंह के साथ अंग्रेजों की नींदें हराम कर दी थीं। पृथ्वी पर चन्द्रशेखर आजाद जैसे योद्धा का अवतरण एक चमत्कारिक सत्य है, जिससे बदरिकाश्रम के समान पवित्र उन्नाव जिले का बदरका गांव संसार में जाना जाता है. कानपुर जिसे हम क्रांति-राजधानी कह सकते है, के निकटवर्ती इसी जनपद में पं. सीताराम तिवारी के पुत्र के रूप में बालक चन्द्रशेखर जन्म 23 जुलाई 1906 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव में हुआ था। आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी 1956 में अकाल पड़ने पर गांव छोड़ कर मध्य प्रदेश चले गये थे। चन्द्रशेखर का बाल्यकाल मध्य प्रदेश के मालवा में व्यतीत हुआ अंग्रेज शासित भारत में पले बढ़े आजाद की रगों में शुरू से ही अंग्रेजों के प्रति नफरत भरी हुई थी। आजाद की एक खासियत थी न तो वे दूसरों पर जुल्म कर सकते थे और न स्वयं जुल्म सहन कर सकते थे। 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग कांड ने उन्हें झकझोर कर रख दिया था। चन्द्रशेखर उस समय पढ़ाई कर रहे थे। तभी से उनके मन में एक आग धधक रही थी। महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन खत्म किये जाने पर सैंकड़ों छात्रों के साथ चन्द्रशेखर भी सड़कों पर उतर आये। छात्र आंदोलन के वक्त वो पहली बार गिरफ्तार हुए। तब उन्हें 15 दिन की सजा मिली। असहयोग आंदोलन से जागे देश में दमन-चक्र जारी था, सत्याग्रहियों के बीच निकल पड़े, प्रस्तरखंड उठाया, बेंत बरसाने वालों में से एक सिपाही के सिर में दे मारा. पेशी होने पर अपना नाम आजाद, काम आजादी के कारखाने में मजदूरी और निवास जेलखाने में बताया. गुस्साए अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने पंद्रह बेंतों की सख्त सजा सुनाई. हर सांस में वंदेमातरम का निनाद करते हुए उन्होंने यह परीक्षा भी उत्तीर्ण की । सन 1922 में गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन को अचानक बंद कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आ गया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ गये। तभी वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। आज़ाद ने क्रांतिकारी बनने के बाद सबसे पहले 1 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया। इसके बाद 1927 में बिसमिल के साथ मिलकर उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया। भगत सिंह व उनके साथियों ने लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला संडर्स को मार कर लिया। फिर दिल्ली असेम्बली में बम धमाका भी आजाद ने किया। आजाद का कांग्रेस से जब मोह भंग हो गया आजाद ने अपने संगठन के सदस्यों के साथ गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाया जा सके। इस दौरान उन्होंने व उनके साथियों ने एक भी महिला या गरीब पर हाथ नहीं उठाया। डकैती के वक्त एक बार एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन ली तो अपने उसूलों के चलते हाथ नहीं उठाया। उसके बाद से उनके संगठन ने सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके लेकिन बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुर रोशन सिंह को 19 दिसम्बर 1927 तथा उससे 2 दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को फाँसी पर लटकाकर मार दिया। अचूक निशानेबाज आजाद ने अपना पावन शरीर मातृभूमि के शत्रुओं को फिर कभी छूने नहीं दिया. क्रांति की जितनी योजनाएं बनीं सभी के सूत्रधार आजाद थे. कानपुर में भगत सिंह से भेंट हुई. साथियों के अनुरोध पर आजाद एक रात घर गए और सुषुप्त मां एवं जागते पिता को प्रणाम कर कर्तव्यपथ पर वापस आ गए. सांडर्स का वध-विधान पूरा कर राजगुरु, भगतसिंह और आजाद फरार हो गए. 8 अप्रैल 1929 को श्रमिक विरोधी ट्रेड डिस्प्यूट बिल का परिणाम सभापति द्वारा खोलते ही, इसके लिए नियुक्त दर्शक-दीर्घा में खड़े दत्त और भगत सिंह को असेंबली में बम के धमाके के साथ इंकलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद करते गिरफ्तार कर लिया गया. भगत सिंह को छुड़ाने की योजना चन्द्रशेखर ने बनाई, पर बम जांचते वोहरा सहसा शहीद हो गए. घर में रखा बम दूसरे दिन फट जाने से योजना विफल हो गई. हमारी आजादी की नींव में उन सूरमाओं का इतिहास अमर है जिन्होंने हमें स्वाभिमानपूर्वक अपने इतिहास और संस्कृति की संरक्षा की अविचल प्रेरणा प्रदान की है.एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी को छुड़ाने की योजना भी बनायी, लेकिन आजाद उसमें सफल नहीं हो पाये। 4 क्रान्तिकारियों को फाँसी और 16 को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी का
कान्तिकारियों को एकत्र कर 8 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। सभी ने एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया - "हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत।" दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड के आरोपियों भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव को फांसी की सजा सुनाये जाने पर भगत सिंह काफी आहत हुए। आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। क्रांतीकारी चन्द्रशेखर नेमृत्यु दण्ड पाये तीनों की सजा कम कराने के लिए सर्व प्रथम मोहन दास करम चंद गांधी से मिलने का प्रयास किया परन्तु गांधी जी द्वारा चंद्रशेखर को देश द्रोही करार देकर मिलने से इंकार करने एवं किसी भी प्रकार का सहयोग नही करने का संदेश देने पर निराश चंद्रशेखर 27 फरवरी 1931 को वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से मिले और आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र-कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने भुनभुनाते हुए बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मिले और इस बारे में चर्चा कर ही रहे थे कि पंडित नेहरू की सूचना पर सीआईडी का एसएसपी नॉट बाबर भारी पुलिस बल के साथ जीप से वहाँ आ पहुंचा। चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे कि तभी वहां अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया. चन्द्रशेखर आजाद ने सुखदेव को तो भगा दिया पर खुद अंग्रेजों का अकेले ही सामना करते रहे. अंत में जब अंग्रेजों की एक गोली उनकी जांघ में लगी तो अपनी बंदूक में बची एक गोली को उन्होंने खुद ही मार ली और अंग्रेजों के हाथों मरने की बजाय खुद ही आत्महत्या कर ली.अचूक निशानेबाज आजाद ने अपना पावन शरीर मातृभूमि के शत्रुओं को फिर कभी छूने नहीं दिया कहते हैं मौत के बाद अंग्रेज अफसर और पुलिस वाले चन्द्रशेखर आजाद की लाश के पास जाने से भी डर रहे थे. महान देश भक्त चंद्रशेखर आजाद शहीद हो भारत माता की गोद मे हमेशा के लिए सो गये । पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था।चंद्रशेखर आज़ाद को वेष बदलने में बहुत माहिर माना जाता था. वह रुसी क्रांतिकारियों की कहानी से बहुत प्रेरित थे. चन्द्रशेखर आजाद की वीरता की कहानियां कई हैं जो आज भी युवाओं में देशप्रेम की लहर पैदा कर देती हैं. देश को अपने इस सच्चे वीर स्वतंत्रता सेनानी पर हमेशा गर्व रहेगा.
बी एस बघेल
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